मैं जागती आँखों से सपने देखने वाला और रचनात्मकता के जुनून में जीने वाला हूँ । मैं बचपन से ही रंगमंच की ओर आकर्षित हो गया था और तभी से मैं रचनात्मक गतिविधियों में शामिल हो गया। मेरे स्कूल के दिन मेरे थिएटर युग की शुरुआत थे। यह मेरे सपनों की एक यात्रा है रंगमंच से होते हुए सिनेमा के बहुआयामी आकाश को छूते हुए लोक कला, संस्कृति और साहित्य के पड़ावों से गुजरते हुए एक यायावर की यात्रा है । मंजिल तक पहुचने का प्रयास है।
सपने जो मैं खुली आँखों से सृजनात्मकता के लिए देख रहा हूँ…..। मेरा अपना विश्वास है कल ये सपने आकार लेंगे… साकार होंगे।
एक रंग यात्रा, एक अनन्त यात्रा…. लक्ष्य निश्चित है! गंतव्य नही!…….
हर कलाकार की अपनी एक जीवन यात्रा होती है और उसी में सम्मलित होतीं हैं न जाने कितनी अन्य अंतर्यात्राएँ जो हमारे साथ – साथ चलतीं रहतीं हैं। किरदारों और असल जिंदगी के समानांतर चलने वाली यह जो अंतर्यात्राएँ हैं वह अकसर हमें बहुत कुछ सिखलातीं रहतीं हैं।
बेचैनियां और अलमस्ती का एहसास कराने की कुब्बत भी मुझे इन्हीं कलाओं ने दी है और इसके साथ ही एक संस्कृतिबोधक निश्छल मन दिया है जिसने मुझे लोकसंस्कृति के प्रति समर्पित कर दिया। एक कलात्मक जीवन दृष्टि ने मुझे अपना बना लिया।
गाँव के ठेठ देसीपन ने मुझे गढ़ा – मढ़ा और सजाया – सँवारा। साठ के दशक में बुंदेलखंड के हमीरपुर जिले के छोटे से गाँव अजनर में 2 मई 1969 में जब मैंने पहली बार आँख खोली तो हँसता – मुसकराता , प्राकृतिक संपदाओं से समृद्ध गाँव देखा। बस गाँव की वह चंदन- सी माटी , पेड़ , खेत – खलिहान, ताल, नदी ,पोखर से लवरेज लोकजीवन, लोकसंगीत मेरी साँसों में समा गया जो आज भी मेरी साँसों मे कस्तूरी सुगंध की तरह महकता रहता है।
मेरे पिताजी श्री सुखलाल पशु चिकित्सक थे। उनकी पोस्टिंग गाँव में ही होती थी। नौ साल की उम्र झाँसी जिले के गाँव बिजौरा (गुरसरांय) झांसी उ.प्र. में आ गया। गाँव का गँवईपन , लोकमानस और लोकसंस्कृति के अनूठे , अप्रितम जीवन ने आँचलिक विरासत को सहेजने, सँवारने की अदम्य लालसा के अँकुर मेरे मन की माटी में बो दिए जो आज भी पल्लवित , पुष्पित और फलित हो रहे हैं। गाँव के इसी परिवेश ने मुझे कलात्मक अभिरुचियों से जोड़ा।
कुछ सालों बाद वर्ष 1976 में बिजौरा (गुरसरांय) झांसी से अतर्रा (बांदा) उ.प्र. जाना पडा अपने पूर्वज ग्राम कैरी, बिसंडा ब्लाक तहसील बाबेरू के पास। तब तक लोकसंस्कृति से जुड़ाव के जुनून ने मेरे मन के भीतर एक कलाकार को जन्म दे दिया जिसके कारण मैं बचपन से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने लगा।
जब मैं प्राचीन प्राथमिक विद्यालय अतर्रा (बाँदा ) की चौथी कक्षा का छात्र था तभी मुझे रंगमंच से जुड़ने का अवसर मिला। मैंने विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया और मण्डल स्तर पर झाँसी में आयोजित खेलकूद समारोह में पी. टी. , चित्रकला तथा ढिडिया नृत्य में भाग लेने पर पुरस्कृत किया गया। यहीं से मेरी रंगमंचीय यात्रा की सुखद शुरुआत हो गयी। अभिनय और ललित कलाओं को सीखने – समझने की ललक मन में कुलाँचें भरने लगी।
फिर एक बार पडाव बदलने का समय आया और वर्ष 1980 में मै राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (दद्दा) की साहित्य नगरी चिरगाँव (झांसी) उ.प्र. में आकर महाकवि केशव, बुंदेली शिरोमणि महाकवि ईसुरी के साहित्य के संस्कारों ने मेरी जीवन यात्रा को पूरी तरह अभिनय और रंगमंच की ओर समर्पित कर दिया। इसी दौरान मेरे अध्यापक श्री जगदीश श्रीवास्तव के सानिध्य में रामयश प्रचारणी समिति चिरगांव के साथ कई वर्षों तक रामलीला और नाटकों के मंचन मे अहम भूमिका निभाई ।
वर्ष 1986 में अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए कदम आगे बढ़ाया और शौकिया थिएटर ग्रुप के साथ जुड़ गया। जहां एक अभिनेता के रूप में कई नाटकों मे अभिनय किया।
वर्ष1991 मे पहली बार चिरगांव (झांसी) मे सिनेमा हाल के अंदर सेट लगाकर “उधार का पति” नाटक का मंचन किया परिणाम दो दिन दो शो हाउसफुल और यहीं से मेरा रुझान रंगमंच की ओर कुछ ज़्यादा ही बढा और दिल्ली की ओर कदम बढ गये।
दिल्ली मे श्रीराम सेंटर फार आर्ट एंड कल्चर से एक साल का रंगमंच में अभिनय प्रशिक्षण मे प्रवेश लिया। इसी दौरान मैडम अमाल अल्लाना के निर्देशन मे हिम्मतमाई (Bertolt Brecht’s play Mother Courage ) नाटक मे काम करने का मैका मिला जिसमें फिल्म अभिनेता मनोहर सिंह मुख्य भूमिका मे थे।
इसी दौरान समझ में आने लगा कि रंगमंच क्या है रंगमंच का विस्तार क्या है रंगमंच जो हम करते थे अपने गांव में वह नहीं जो अब देख रहे हैं वह सच है। फिर एक बार पढ़ने का सीखने का और समझने का सिलसिला नए सिरे से शुरू करना पड़ा जो काफी रोमांचक था। सम्पूर्ण रंगमंच….अभिनय और अभिनय के साथ बैकस्टेज जैसे कि कॉस्टयूम, मेकअप, लाइटिंग, प्रॉपर्टी अनेक विषयों पर जानकारी हासिल करना और सीखना।
वर्ष1992 मे भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ मे चयन हो गया। भारतेंदु नाट्य अकेडमी में नाटक की विभिन्न विधाओं का विस्तार पूर्वक अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। यहां देश के जाने माने अनेक निर्देशकों के साथ काम करने का एक अलग अनुभव रहा। यहां भी भरपूर सीखने का मौका मिला और अनेकों रंग मंचीय प्रयोगों से निकलकर फिर वापस दिल्ली आ गए।
वर्ष 1996 में दिल्ली मे सूचना एवं प्रासारण मंत्रालय भारत सरकार के गीत एवं नाटक प्रभाग मे बतौर अभिनेता दो साल तक काम करते रहे । यहां भी एक अलग तरह का अनुभव रहा, नेशनल ड्रामा ट्रुप के साथ कई नाटकों में अभिनय किया और देश के कई शहरों में सफलता पूर्वक प्रदर्शन किये। फिर वर्ष 1997 में दिल्ली सरकार के साहित्य कला परिषद रंगमंडल मे चले गये । यहां भी तीन साल रहे और देश के जाने-माने कई निर्देशको के साथ अनेक नाटको मे अभिनय किया।
मेरा रंगमंच का सफर विशेष रूप में अभिनेता ,निर्देशक और अध्यापक के रूप में रहा है। लगभग 60 से अधिक नाटकों में अभिनय और 30 से अधिक नाटकों का निर्देशन किया है, जिसका मंचन देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर 200 से अधिक बार हो चुका है। देश के लगभग 50 से अधिक रंग जगत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ कार्य किया है जिनमें – पद्मविभूषण हबीब तनवीर, पद्मश्री दया प्रकाश सिन्हा प्रो.बी.एम.शाह, सुश्री अमाल अलाना, प्रो. देवेंद्र राज अंकुर, श्री बादल सरकार, श्री वागीश कुमार सिंह, प्रो.हेमा सिंह, श्री उर्मिल कुमार थपलियाल, श्री जे.पी.सिंह, श्री अवतार साहनी, श्रीमती चित्रा सिंह, सुश्री चित्रा मोहन, श्री सुरेश शर्मा, श्री प्रवीर गुहा, श्री निरंजन गोस्वामी आदि प्रमुख है।
बतौर अध्यापक जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में ड्रामा इंस्ट्रक्टर के रूप में काम किया और “आस” एन.जी.ओ. के साथ भवाली (नैनीताल) में कई सालों तक नाट्य निर्देशक के रूप में काम किया और इसके साथ साथ छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में स्थित वंदना आर्ट्स कोंडागांव मे कई सालों तक रंगमंच की गतिविधियों से जुड़ा रहा और वहां पर राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव के आयोजन भी किए।
वर्ष 2000 मे दिल्ली से मुम्बई चले गये। मुम्बई मे कई साल तक बतौर सह निर्देशक कई जाने-माने फिल्म, टी वी निर्देशकों के साथ काम किया। और रंगमंच से किसी न किसी रूप मे जुडे रहे। 2003 नवी मुंबई एरोली के डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल के 800 छात्रों के साथ भारत के 5000 वर्ष के गौरवमई इतिहास का सफल मंचन किया।
वर्ष 2009 से बतौर निर्देशक टी वी सीरियल का निर्देशन कर रहे हैं। अभी तक हिंदी, भोजपुरी मे कई सीरियल सोनी टीवी, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, ज़ी पुरवईया, अंजन टीवी, महुआ टीवी, ज़ी गंगा, दूरदर्शन आदि के लिये 2000 से अधिक एपीसोड निर्देशित किये हैं।
मैं मूलतः बुंदेलखंड से हूँ पर कई भाषा-बोली की जानकारी होने से विभिन्न भाषा-संस्कृति पर काम कर चुके हैं । अब तक जितने भी भोजपुरी धारावाहिक टीवी चैनल आए उनके लिए उन्हे पहले 100 एपिसोड निर्देशित करने का अवसर मिला ।
मुझे 2023 में प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा आयोजित आखर उत्तर प्रदेश में बुंदेली भाषा एवं बुन्देली लोक जीवन पर आधारित सेमीनार का प्रतिनिधित्व करने का अवसर प्राप्त हुआ है।
वर्ष 2017 से बुन्देलखण्ड की लोक कला संस्कृति और साहित्य के संरक्षण-संवर्धन एवं बुन्देली को विशाव पटल पर लाने के लिए https://bundeliijhalak.com/ वेबसाट के माध्यम से बुंदेलखंड ही नही अपितु देश- विदेश मे बुंदेली संस्कृति को जन-जन तक पहुचाने का प्रयास शुरू हो गया और साथ ही रंगमंच और फिल्म मेकिंग की विधाओं का आन लाईन/आफ लाईन प्रशिक्षण अपनी गति ले चुका है। अपनी वेबसाईट https://filmsgear.in/ से रंगमंच एवं फिल्म मेकिंग की जानकारी , मार्गदर्शन एवं दिशा निर्देश उपलब्ध है ।
बुंदेली लोक विधा “रावला” पर आधारित लोक नाट्य को प्रयोगात्मक एरिना रंगमंच पर प्रदर्शन करने हेतु शोध चल रहा है। इस विधा की खास बात यह है कि पुरुष अभिनेता ही अभिनेत्री का चरित्र निभाता है और ये गंवई अभिनेता इतने निपुण होते है कि वह अपने नाट्य प्रदर्शन के दौरान दर्शकों से सीधा संवाद कर सकते है उनके सवालों का जवाब दे सकते हैं साथ ही दर्शक को अपने प्रदर्शन के साथ जोड लेंगे, ऐसा लगेगा कि वह दर्शक उन्हीं की नाट्य मंडली का ही एक चरित्र है।
स्थिति और परिस्थितियों के अनुकूल यह अभिनेता अपनी विषय वस्तु बदलने में सक्षम होते हैं। अभिनेता कब, कैसे इंप्रोवाइजेशन कर दें कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन नाट्य विधा पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पडता और फिर अभिनेता पुन: अपने मूल विषय वस्तु पर आकर प्रदर्शन को आगे बढ़ा देते हैं।
एक रंग यात्रा, एक अनन्त यात्रा…. लक्ष्य निश्चित है ! गंतव्य नही !…….